मेरी यात्रा

निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी-मिटी
हर बार बिखेरी गई, किन्तु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी |

आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़कर छल जाए,
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाये,

यों तो बच्चों की गुड़िया सी भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए पानी बरसे तो गल जायें |

मिट्टी की महिमा मिटने में मिट-मिट हर बार सवरती है
मिट्टी-मिट्टी पर मिटती है मिट्टी-मिट्टी को रचती है |



- डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन
गाँधीवादि कवि

मिट्टी की बात करते हैं तो एकदम से गाँव का ध्यान ही जहन में आता है (जबकि मिट्टी तो सभी जगह है) | यहीं माटी से मैं हमेशा ही जुड़ी रही हूँ. मैं मध्यप्रदेश के छोटे से गाँव खैरी से हूँ | ये गाँव होशंगाबाद जिले के बाबई तहसील में आता हैं | मेरी ५ वीं तक की शिक्षा-दिक्षा खैरी के पास एक गाँव सिमरोधा में हुई, जहाँ हम पैदल ही स्कूल जाया करते थे | पिताजी ने तीन बार कोशिश कि की मेरी बहने की तरह मैं भी वनस्थली १९५० में (बहुत बड़ा व् अच्छा स्कूल लड़कियों के लिए जो राजस्थान में गांधी विचार पर खोला गया) में पढूँ तीन बार मुझे लेकर भी गये परन्तु माँ कभी नहीं चाहती थी की मैं वहाँ जाऊ | वे मुझे अपने साथ ही रखना चाहती थी | इसलिए हमेशा मुझे भेजने के बाद प्रार्थना करती थी कि मेरा एडमिशन न हो और मैं वापस उनके पास आ जाऊ |


५ वीं में थी तब तक हमारा परिवार गाँव में ही रहता था | जब मैं ६ वीं कक्षा में आई तो मुझे मेरी मोसी के यहाँ होशंगाबाद में पढ़ने के लिये भेज दिया | उस वर्ष हमारे घर पर एक बहुत बड़ा डाका पड़ा और उसमें मेरे पिताजी, दादाजी को डाकुओं ने इतना मारा | उन्हें बहुत चोट आई, जिससे उन्हें २/३ माह अस्पताल में रहना पड़ा | फिर होशंगाबाद में ही रहने के लिये घर ले लिया | फिर ६ वीं कक्षा से लेकर M.Hsc की पढाई मेरी वहीं हुई |


गाँव एवं ग्रामीण समाज से जुड़ाव बचपन से ही रहा | उसमें माँ व् पिताजी का बड़ा योगदान रहा | पारिवारिक माहोल भी इसी तरह रहा | स्कूल एवं कॉलेज जीवन में ग्राम सेवा समिति, फ्रेनडरुरल सेंटर, होशंगाबाद विज्ञान, एकलव्य, किशोर भारती जैसी प्रमुख समाज सेवी संस्थाओं से जुड़ाव रहा | बहुत बार उनके कार्यक्रमों में भाग लेने का अवसर मिला | ग्रामीण परिवेश से होने से गाँवों की समस्याओं, महिलाओं की समस्या, कृषि, पारम्पारिक स्वास्थ्य पद्धतियों की समझ बचपन से ही थी |


१९८२ मेरे जीवन में बहुत परिवर्तन लेकर आया | उसी वर्ष मैं M.Hsc फाइनल में थी | छ: माह की बीमारी के बाद माँ का निधन हुआ | माँ के रहते मैंने बैतूल में आने का तय कर लिया था | ग्रामीण क्षेत्र के लिये केवल काम करना है, यह मैंने ११वीं कक्षा में तय कर लिया था | पर उस समय यह तय नहीं था कि कहाँ काम करना, क्या करना है | मेरा परिचय डॉ. शर्मा से उसी वक्त हुआ | वह सिरडी संस्था के अध्यक्ष थे | माँ की म्रत्यु के २० दिन बाद ही मैंने सतपुड़ा एकीकृत ग्रामीण विकास संस्था (सिरडी) में २५ जून को ज्वाइन किया | भोपाल में १० दिन की ट्रेनिंग के बाद ५ जुलाई को मैंने ग्राम टेमनी में रहना शुरू किया | उस समय वहाँ संस्था का परिसर था, पर बिना रोड, बिजली, पानी , मकान में दरवाजे भी नहीं थे | उस समय आवागमन व् कम्युनिकेशन के तो कोई भी साधन नहीं थे | पैदल ही चलना पड़ता था | टेमनी में उस समय १५ से ४० कि.मी. तक प्रतिदिन पैदल ही चलना पड़ता था | टेमनी में उस समय संस्था में शायद पहली महिला थी जिसने तय किया कि मैं जहाँ काम करना है वहीँ सीधे गाँव में रहूंगी | यहाँ आकर में खुश थी क्योंकि मेरे सामने बहुत बड़ा चेलेंज थापर बहुत आश्चर्य चकित भी थी कि ऐसी जमीन जहाँ केवल मिट्टी का नाम ही नहीं है, पत्थर ही पत्थर है जिसमें गोखरू के अलावा कोई पेड़ नहीं, प्लेन खेती नहीं ऐसी जमीन पर कोई खेती कैसे कर सकता है | पेड़ कैसे लगा सकता है | जबकि उस समय हमारी संस्था का कृषि एवं वनों का विकास मुख्य एजेंडा था | पहली बार मैं होशंगाबाद से बाहर निकली थी और वहाँ तो मिलों चले जाइये, काली मिट्टी के समतल खेत है | इस क्षेत्र जैसी जमीन तो हमारे यहाँ बंजर कहलाती है l


घर से जब टेमनी जा रही थी तो पिताजी थोड़ा दुखी थें | क्योंकि थोड़े दिन पहले ही माँ की मृत्यु हुई थी, और अब मैं जा रही हूँ | उन्होंने पूछा कब आओगी तो मैंने कहाँ था कि या तो एक सप्ताह में लोट आऊँगी या फिर मन लग गया तो २/३ माह बाद देखूंगी | उस समय एक जगह से दूसरी जगह आना जाना आसान नहीं था | ऐसा नहीं कर सकते थे कि जब मन आयें उठ कर चल दिये | पहले टेमनी से सावलमेंढा १३ कि.मी पैदल आना, फिर बस से बैतूल व् वहाँ से आगे जाने के लिये साधन मिलता था | बस भी बहुत सिमित होती थी व् ४ बजे के बाद कोई बस नहीं होती थी | बाहर निकलना बहुत ही कम हो पाता था | पहली बार मैं अक्टूबर में भोपाल गई | भोपाल में हमारी संस्था की तरफ से राष्ट्रीय सेमिनार था जिसकी तैयारी के लिये मुझे भी बुलाया था | वहाँ से लोटते हुए मैं फिर घर गई l


टेमनी में शुरुआत के दिनों में मेरी बहुत महत्वपूर्ण चीजे जिन्हें में बहुत संभाल कर रखती थी - पेट्रोमेक्स, स्टोव, ट्रांजिस्टर, टार्च व् डंडा | उनके बिना वहाँ काम नहीं चलता था | इनको किसी को छूने नहीं देती थी | शुरू में ६ वर्ष मेरे बहुत काम आई l शुरू में मुझे तीन काम दिए गये

  • (क) बच्चों व् महिलाओं के स्वास्थ्य व् पोषहार स्तर का अध्यन कर पोषण आहार तैयार करना ,
  • (ख) महिलाओं से संपर्क करना, संगठित करना व् महिलाओं के लिये प्रोढ़ शिक्षा चलाना,
  • (ग) ग्राम स्तरीय कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण करना (GRLSW-Grass Root Level Workers) |


पाटादा ग्राम में हम ये दोनों काम कर रहें थे | एक बार मैं गाँव में स्कूल जा रही थी | मैंने ध्यान नहीं दिया व् एक बच्चा स्लेट लेकर (उस समय पत्थर की स्लेट चलती थी) मेरी तरफ बहुत गुस्से से दोड़ा | वो तो वहाँ के शिक्षक ने देख लिया व् उसे पकड़ा | उस समय गाँव में बाहरी व्यक्तियों का आना बिल्कुल ही न के बराबर होता था | उसे मैं व् मेरी वेशभूषा एकदम अलग लगी तो उसे लगा कि ये कोई पकड़ने वाला आ रहा हैं | (उस दिन मैंने चूड़ीदार पईजामा व् कुर्ता पहना था) उस दिन का दिन है, तब से मैंने जो साड़ी पहनना शुरू की आज तक पहन रही हूँ | उस समय अजीब होता था अन्य पोशाक पहनना है | आज तो गाँव में सब लड़कियां सूट, जींस पहनती हैं |


थोड़े दिन GRLSW प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये व् उसके बाद उन कार्यकर्ताओं ने गाँव में रात्रि में युवतियों, महिलाओं को पढ़ना शुरू किया | ये क्लासें रात्रि में खाना वगैरह खाने के बाद ही चलती थी | यदि उन्हें देखना हो तो रात में ही जाना पड़ता था | बिजली तो उन दिनों होती नहीं थी | लालटेन भी एक दो घर में ही होती थी | हम रात्रि शाला के लिए तीन चार लालटेन देते थे | महिलाओं को बहुत शोक था लालटेन के उजाले में बैठने का | रात्रि में साढ़े आठ के करीब, साथी सहायक भादू को लेकर गाँव पाटादा पहुची जो चार कि.मी दूर था | वहाँ की कार्यकर्त्ता को तो यह उम्मीद नहीं थी कि कोई रात में उसके गाँव आयेगा | वह अपनी कक्षा ले रही थी | जैसी ही मैं अचानक वह जाकर खड़ी हुई (शायद लाल बाडर की सफ़ेद साड़ी पहनी थी), कार्यकर्त्ता एकदम चीख कर वहाँ से भागी व् महिलाओं में भी बहुत भगदड़ मच गयी | उन्हें लगा कि कोई भूत है | उसका डरा हुआ चेहरा याद करके मुझे आज भी हँसी आती है | भादू ने तब आगे बढ़कर कहाँ कि डरो मत बाई (उस समय ज्यादातर से लोग बाई या बड़ी दीदी ही बोला करते थे) l


टेमनी जब मैं शुरुआत में रहती थी तो वहां भादू जो खेत का व जानवरों का व् उपरी काम करता था, उसकी पत्नी मैना जो सफाई आदि का काम करती थी व् गणेशसिंह ठाकुर का परिवार रहता था | हम परिसर में एक परिवार की तरह थे | गाँव वालोँ द्वारा दान दी हुई जमीन पर यह परिसर थोड़े दिन पहले ही बनना शुरू हुआ था | हम जिस दिन फिल्ड पर नहीं जाते थे या कम काम होता था सब मिलकर केम्पस से गोखरू ? उखाड़ने व् पेड़ो की देख-रेख का काम करते थे | उन दिनों संस्था ने पहले १४ गाँव व फिर २७ गाँव में काम शुरू किया था | इन गाँवों को साप्ताहिक बाजार के आधार पर ४ क्लस्टर में बाटा गया था | उनमें हर रोज ही मुझे १० से २०/३० कि.मी पैदल चलना पड़ता था | मैं शुक्रवार को टेमनी से सावलमेंढा होते हुए कोथलकुण्ड जाती थी | वहाँ उस क्षेत्र के (GRLSW) के साथ मीटिंग के बाद में अपने अलग-अलग गाँव के लिए निकलते थे | रात में हर बार किसी गाँव में ही बदल-बदल कर ग्रामीणों के यहाँ रुकती थी | शनिवार पिपलना क्लस्टर में गाँव में विजित करती थी व् वहा भी गाँव में ही रूकती थी | रविवार को बहिरम पलासखेड़ी परिसर में ही रुक कर दोपहर बाद बैतूल आती थी | यहाँ पर डाक्टर शेलामुले के यहाँ दो-दो के बेच में चार हरिजन, आदिवासी युवतिया थी जो नर्सिंग का प्रशिक्षण ले रही थी | वे ७वीं ८वीं तक ही पढ़ी थी परन्तु नर्सिंग की ट्रेनिंग करने के बाद उन्होंने अपनी आगे की पढाई की | इस तरह से ये हमारा पहला ही प्रयोग था जो सफल रहा | उन्होंने १ वर्ष प्रशिक्षण के बाद संस्था में काम किया व् वर्तमान में दो महिलाएं आज भी स्वास्थ्य विभाग में नर्स है l


मैं रविवार रात को बैतूल रुखकर सोमवार को सावलमेंढा के लिए निकलती थी | बैतूल कुछ सरकारी विभागों व् अन्य जगह काम करके थोड़ी देर से निकलती थी | दोपहर तक सावलमेंढा पहुचती थी | यहाँ पर हमारा एक फिल्ड कार्यालय था जो सोमवार को ही खुलता था | सावलमेंढा में सोमवार का बाजार होता था और यहाँ करीब ४०/५० गाँव के लोग अपनी जरुरत का समान खरीदने व् काम से आते थे | वंहा हमारे कार्यकर्ता भी आते थे | उनसे सब जानकारी व् उन गाँवों तक जो भी सन्देश होते थे या गाँव की समस्यायें हम तक पहुच जाती थी | उन दिनों सूचना भेजने का कोई अन्य माध्यम तो था ही नहीं | सभी गाँवों में आना-जाना भी आसान नहीं होता था | बैलगाड़ी व् पैदल के अलावा कोई साधन नहीं थे | साप्ताहिक बाजार उस हिसाब से बहुत ही उपयोगी होते थे | सोमवार शाम तक सब काम खत्म करके गाँव वालों के साथ मैं भी टेमनी पहुचती थी | यह फिक्स कार्यक्रम मेरा काफ़ी दिनों तक चला | बिल्कुल तय कार्यक्रम होता था किसी को भी कोई जानकारी देनी होती भी, तो भोपाल से कुछ आना या भेजना होता सब उस समय के अनुसार ही होता था |


गाँव की प्रष्ठभूमि को समझना उसमे जल्दी घुल मिल जाना व् पारिवारिक प्रष्ठभूमि के कारण काम करने, समझने के कारण मुझे संस्था में शुरू से बहुत सी जिम्मेदारी दे दी गई थी | उस समय संस्था में क्रिशिचियन चिल्ड्रन फण्ड (CCF) का परिवार सहायता कार्यक्रम का प्रोजेक्ट चल रहा था | मुझे उसमें १९८२ में ही अधीक्षक बना दिया गया | अपनी यात्रा के कुछ प्रमुख वृतांत यहाँ दिए है | बाद की गतिविधियाँ बाकी आप मेरी वेबसाइट से देख सकते हैं |


(डॉ. उपमा दीवान)